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गुरुवार, 18 अगस्त 2011

बस्ते का बोझ- डा. सुरेंद्र विक्रम

बस्ते का बोझ
बाल गीत: डा. सुरेंद्र विक्रम 

इक ऐसी तरकीब सुझाओ, तुम कंप्यूटर भैया।

बस्ते का कुछ बोझ घटाओ, तुम कंप्यूटर भैया।।

हिन्दी, इंग्लिश, जी.के. का ही, बोझ हो गया काफ़ी।

बाहर पड़ी ‘मैथ’ की काँपी, कहाँ रखें ‘ज्योग्राफी’ ?

रोज़-रोज़ यह फूल-फूलकर, बनता जाता हाथी।

कैसे इससे मुक्ति मिलेगी परेशान सब साथी।।

‘होमवर्क’ इतना मिलता है, खेल नहीं हम पाते।

ऊपर से ‘ट्यूशन’ का चक्कर, झेल नहीं हम पाते।।

पढ़ते-पढ़ते ही आँखों पर, लगा ‘लेंस’ का चश्मा।

 भूल गया सारी शैतानी, कैसा अज़ब करिश्मा ?

घर-बाहर सब यही सिखाते, अच्छी-भली पढ़ाई।

पर बस्ते के बोझ से भैया, मेरी आफत आई।।

अब क्या करूँ, कहाँ  जाऊँ, कुछ नहीं समझ में आता ?

देख-देखकर इसका बोझा, मेरा सिर चकराता।।

घर से विद्यालय, विद्यालय, से घर जाना भारी।

लगता है मँगवानी होगी, मुझको नई सवारी।।

पापा से सुनते आए हैं, तेज दिमाग तुम्हारा।

बड़े-बड़े जब हार गए, तब तुमने दिया सहारा।।

मेरी तुमसे यही प्रार्थना, कुछ भी कर दो ऐसा।

फूला  बस्ता पिचक जाय, मेरे गुब्बारे जैसा।।
डा. सुरेंद्र विक्रम 

हिंदी के सशक्त एवं सक्रिय बाल साहित्यकार तथा  समीक्षक 
जन्म :1 जनवरी , बरोखर , इलाहबाद 
शिक्षा : एम्.ए(हिंदी) ; पी-एच. डी. 
बाल साहित्य  आलोचना की चार पुस्तकों सहित बच्चों के लिए कई पुस्तकें प्रकाशित . 
संपर्क : सी -1245, राजाजीपुरम , लखनऊ 

4 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर सार्थक कविता..
    आज के परिवेश में जहाँ प्रतियोगिता का दौर आ गया है वहाँ शिक्षा व्यवसाय व रोजगार परक होनी चाहिए बस्तों का बोझ अवश्य ही कम होना चाहिए ....

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  2. हाँ अंकल बस्ते के बोझ से तो मैं भी परेशान हूँ..इतना ज्यादा फूला रहता कि बेचारी किताबें उसमें से खींच कर निकलते रखते फट जातीं हैं.. हम बच्चों के मन का दर्द सुनती ये कविता बहुत ही अच्छी है |

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  3. कविता बहुत ही अच्छी लगी .एकदम सरल -----शब्दों की कलाबाजी से मुक्त ,बच्चों की परेशानी ,उनका कष्ट इसमें झलकता है |
    सुधा भार्गव

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