बाल-मंदिर परिवार

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रविवार, 13 अप्रैल 2014

टोपी

कविता- उर्मिला गायकवाड़ 
दादा जी की टोपी भैया ,
अपने सिर पर रखकर।
अपने घर में इधर-उधर फिर, 
खूब  मारता चक्कर।
जो भी मुझको दिखता उसको 
कहता , अजी नमस्ते! 
आप  समझते हमको क्या ?
बतलाओ, हँसते-हँसते। 
उर्मिला गायकवाड
जन्म तिथि १२ फ़रवरी १९७६
 शिक्षा--एम्.ए हिंदी,अंग्रेज़ी
बाल कहानियों पर शोध कार्य  
 अध्यापिका--इंदिरा नेशनल स्कूल,
वाकड़,पुणे

चित्र साभार गूगल 

शुक्रवार, 28 मार्च 2014

कहानी : 'मंजिल' : भगवती प्रसाद द्विवेदी

मंजिल
भगवती प्रसाद द्विवेदी

राजेश सड़क के किनारे बस यों ही टहल रहा था। इस शहर में आए हुए तीन-चार रोज ही गुजरे थे। सरकारी नौकरी में कहीं एक जगह टिकना किसी-किसी के नसीब में ही होता है। हर तीन-चार साल पर तबादला होना और शहर-दर-शहर भटकना ही तो नियति है।

राजेश अभी आगे बढ़ ही रहा था कि एकाएक उसके बगल में एक कार आकर खड़ी हो गई। "राजेश भैया, आप?" कार में से किसी ने पुकारा।

राजेश हतप्रभ-सा खड़ा हो गया। इस नए शहर में भला कौन उसका मित्र हो सकता है? अभी वह सोच भी नहीं पाया था कि कार का दरवाजा खुला और हाथ जोड़ते हुए कोई बाहर निकला।

"सुशीलजी, आप यहाँ?" राजेश के अचरज की सीमा न रही। सुशील यहाँ और इस रूप में।

"जी, आप लोगों के आशीर्वाद से आजकल यहाँ का जिलाधिकारी हूँ।" सुशील ने विनम्रता से उत्तर दिया।

राजेश को सहसा अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। जो कुछ सुना, वह कहीं सपना तो नहीं? मगर सच्चाई को भला झुठलाया भी कैसे जा सकता है?

सुशील ने फिर कहा, "राजेश भैया, यदि कोई खास व्यस्तता न हो, तो कृपया मेरे गरीबखाने तशरीफ ले चलें।"

राजेश को भला क्या ऐतराज हो सकता था। उसके लिए तो शाम का वक्त काटना मुश्किल हो रहा था। उसने हामी भरी और दोनों कार में जा बैठे। एक-दूसरे की कुशल-क्षेम पूछने के बाद बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ा।

राजेश एकाएक अपने बचपन में जा पहुँचा। वाराणसी शहर में उसने अपने बचपन के कुछ वर्ष गुजारे थे और वहीं के राजकीय विद्यालय में पढ़ाई-लिखाई की थी। सुशील उससे दो कक्षा कनीय जूनियर था।

उन दिनों राजेश ऊहापोह की स्थिति में जी रहा था। वह तय नहीं कर पा रहा था कि उसे कौन-सा रास्ता अख्तियार करना चाहिए। उसकी नजरों में मंजिल तक पहुँचने के लिए दो रास्ते साफ-साफ दिख रहे थे। एक रास्ता अंग्रेजी के 'सर' का था और दूसरा रास्ता था हिन्दी के गुरुजी का। विद्यालय में दोनों शिक्षक दो विपरीत ध्रुवों की तरह थे।

अंग्रेजी के 'सर' का व्यक्तित्व जितना ही स्मार्ट था, उनका पहनावा और रहन-सहन भी उतना ही अत्याधुनिक था। आँखों पर सुनहरे फ्रेम का चश्मा, सफाचट मूँछें, बदन पर शानदार सूट-टाई और हाथ में सिगार। उनके शिक्षण का उद्देश्य छात्रों को विषय की गइराई में ले जाना कतई नहीं था।

बस, किसी तरह पाठ रटा देना और अधिक-से-अधिक ट्यूशन का जुगाड़ बैठा लेना उनकी ड्यूटी थी। पूरे विद्यालय में उनकी तूती बोलती थी। हेडमास्टर को भी उन्होंने पटा रखा था। ट्यूशन न पढ़ने वाले छात्रों को वह अधिक-से-अधिक परेशन करते थे। परीक्षा में ऐसे लड़कों को अंक भी बहुत कम देते और बार-बार ट्यूशन की महिमा का बखान करते। वह अक्सर कहा करते थे-

मतलब से सबको मतलब है,

मतलब न रहा तो क्या मतलब !

'सर' को न तो यह देश अच्छा लगता था, न यहाँ के रीति-रिवाज ही। यहाँ की परम्परा, संस्कृति और रहन-सहन के तौर-तरीकों की वह आए दिन कक्षा में खिल्ली उड़ाया करते थे। हिन्दी वाले गुरुजी भी अक्सर उनकी आलोचना का शिकार हो जाते थे।

मगर हिन्दी वाले गुरुजी ने तो जैसे नाराज होना सीखा ही न हो। वह 'सर' की बातों को मुसकराकर टाल देते थे। अपनी बड़ी-बड़ी मूँछों, बहुत ही साधारण किस्म के कुरते-धोती और हवाई चप्पलों में गुरुजी एक निपट किसान-से लगते थे। न तो उन्हें दिखावा प्रिय था, न ही तड़क-भड़क । ओढ़ी हुई आधुनिकता और बनावटीपन से उन्हें सख्त नफरत थी। कक्षा में पढ़ाने के साथ-साथ वह रहन-सहन, तौर-तरीकों की सीख भी दिया करते थे। उनका मानना था कि शालीनता बिना मोल मिलती है, मगर उससे कुछ भी खरीदा जा सकता है। नमस्ते करने के बजाय वह बड़ों को प्रणाम करने और पाँच छूने की शिक्षा दिया करते थे। उनकी दृष्टि में, ऐसा करने से हाथ जुड़ते हैं, माथा झुकता है और हृदय नत होता है। इस प्रकार,

सही मायने में बड़ों के प्रति श्रद्धा का भाव जगता है। जिन परम्पराओं को अंग्रेजी के 'सर' दकियानूसी बताते, उन्हें ही गुरुजी विज्ञान की कसौटी पर कसते और उनकी प्रासंगिकता पर प्रकाश डालते। यही कारण था कि दोनों में सदा ही शीतयुद्ध चलता रहता था। अंग्रेजी वाले 'सर' हेडमास्टर से शिकायत करते कि हिन्दी वाले गुरुजी बच्चों को पोंगापन्थी पढ़ा रहे हैं, जबकि गुरुजी बच्चों में अच्छे संस्कार डाले जाने की जरूरत पर बल देते।मगर राजेश को हिन्दी वाले गुरुजी का रहन-सहन आकर्षित नहीं कर पाता था। न ढंग के कपड़े-लत्ते, न प्रभावशाली व्यक्तित्व ही। दूसरी ओर अंग्रेजी वाले 'सर' कदम-कदम पर आधुनिक लगते थे। चूँकि राजेश के परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी न थी, अतः न तो वह 'सर' की नकल कर पाता था, न ही गुरुजी की सादगी को अपना पाता था।

गुरुजी का इकलौता बेटा सुशील भी निहायत ही सीधा-सादा दिखता था। गुरुजी की तरह उसके कपड़े भी बहुत सस्ते, मगर साफ-सुथरे होते थे।

'सर' का पुत्र एक महंगे अंग्रेजी स्कूल में पढ़ता था। कभी-कभी विद्यालय के शिक्षकों और विद्यार्थियों पर रौब झाड़ने के लिए 'सर' अपने बेटे को वहाँ बुलाते थे और अंग्रेजी में भाषण दिलवाने लगते थे।

परीक्षा नजदीक आने पर 'सर' परीक्षा में पूछे जाने वाले प्रश्नों को अपने प्रिय छात्रों को चुपके से थमा देते थे और उस 'एटम बम' के लिए मनमानी रकम ऐंठते थे।

मगर विद्यालय के हेडमास्टर चूँकि अंग्रेजी वाले 'सर' के पक्षधर थे, अतः गुरुजी को बार-बार चेतावनी दी जाती और उन्हें सिर्फ पाठ्य-पुस्तक से ही मतलब रखने को कहा जाता। आखिरकार गुरुजी ने वहाँ से त्यागपत्र दे दिया था। मगर कुछ ही दिनों में उनकी नियुक्ति एक दूसरे विद्यालय में हो गई थी। अगले साल राजेश को भी वह शहर छोड़ना पड़ा था; क्योंकि पिताजी का वहाँ से स्थानान्तरण हो गया था।

राजेश मन-ही-मन सोच भी रहा था और सुशील से बातें भी करता जा रहा था।

कितना सीधा और शिष्ट है सुशील। अगर कोई दूसरा होता तो इस ओहदे पर पहुँचने के बाद क्यों किसी मामूली आदमी से बात करना भी पसन्द करता?

तभी अचानक फिर 'सर' की याद हो आई और राजेश ने पूछा, "अच्छा, उस अंग्रेजी वाले 'सर' के बारे में कुछ अता-पता है क्या?"

"क्या बताएँ, भैया!" सुशील ने रुआँसा होकर कहा, "सर बहुत अधिक शराब पीने लगे थे। उन्हें बहुत पछतावा भी होता है, मगर अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत। शराब और आधुनिकता ने उन्हें बरबाद कर दिया। फैशनपरस्त लड़का अपने बीवी-बच्चों के साथ अलग रहता है। पत्नी स्वर्ग सिधार गई। आजकल वह वहुत ही तंगहाली में दुख और अकेलापन झेल रहे हैं। कोई उन्हें देखने-भालने वाला भी नहीं है।"

बेचारे सर! राजेश को बहुत आघात पहुँचा। फिर मुँह से अनायास निकल पड़ा, "जैसी करनी, वैसी भरनी।"

जिलाधिकारी का बैंगला आ गया था। कार से उतरकर जब दोनों आगे बढ़े, तब लॉन में बैठे गुरुजी सुशील के बेटे-बेटी के साथ कोई खेल खेलते हुए दिखाई पड़े। सचमुच गुरुजी जरा भी नहीं बदले। वही हँसी, वही सादगी। इधर राजेश ने हाथ जोड़कर गुरुजी को प्रणाम किया और उधर परिचय पाते ही बच्चे राजेश के पैरों की ओर आ झुके।

नेमप्लेट पर 'सुशील, भारतीय प्रशासनिक सेवा' की लिखावट और आलीशान बंगले पर जब फिर नजर पड़ी, तब राजेश को यह बात पूरी तरह समझ में आ गई कि मंजिल तक पहुँचने की सही राह कौन-सी है। बच्चों को गोद में उठाते हुए अब राजेश मन-ही-मन बुदबुदा रहा था- "सचमुच, शालीनता से सब-कुछ खरीदा जा सकता है।"
भगवती प्रसाद द्विवेदी
जन्म
1 जुलाई, 1955; दलछपरा गाँव, बलिया (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा
एम एससी (रसायन विज्ञान)
प्रकाशित पुस्तकें
बालसाहित्य की शताधिक पुस्तकें

मेरी प्रिय बालकहानियां (52 कहानियाँ)
मेरी प्रिय बाल कविताएँ (प्रतिनिधि 251 बालगीत)
मेरे प्रिय बाल नाटक 'विशेष रूप से उल्लेखनीय

अन्य पुस्तकें 
चीरहरण
अस्तित्वबोध
फीलगुड तथा अन्य कहानियां
जिसके आगे राह नहीं (सभी कहानी-संग्रह)
नयी कोंपलों की खातिर (नवगीत-संग्रह)
एक और दिन का इज़ाफ़ा (कविता-संग्रह)
भविष्य का वर्तमान
थाती
सदी का सच (लघुकथा-संग्रह)
इंटेलेक्चुअल्स पॉर्लर (व्यंग्य-संग्रह)
भिखारी ठाकुर : भोजपुरी के भारतेन्दु
महेन्द्र मिसिर : भोजपुरी गीतकार(आलोचना)
भारतीय जनजातियाँ : कल, आज और कल (शोध)
ठेंगा
भिहिलात बताशा जइसन (भोजपुरी कहानी-संग्रह)
बिहार के लोकरंग (लोकसाहित्य)
जौ-जौ आगर (भोजपुरी कविता-संग्रह)

भोजपुरी उपन्यास

दरद के डहर
बगावत
साँच के आँच
 

भोजपुरी कथाएँ

भोजपुरी लोककथा-मंजूषा (चुनिंदा लोककथा-संग्रह)
 


'भारतीय साहित्य के निर्माता श्रृंखलांतर्गत साहित्य अकादेमी से प्रकाशित मोनोग्राफ महेन्द्र मिसिर
 

निबंध-संग्रह

माटी में सोनवा
 

सम्मान

उत्तर प्रदेश सरकार से बालसाहित्य का सर्वोच्च 'बालसाहित्य भारती सम्मान'
सरस्वती बाल कल्याण न्यास, इन्दौर द्वारा 'देवपुत्र गौरव सम्मान'
बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् से 'विशिष्ट साहित्य सेवा सम्मान'
उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ से वर्ष 2013 का 'निराला पुरस्कार' एवं 2014 का 'सूर पुरस्कार'
बिहार सरकार के राजभाषा विभाग द्वारा पुरस्कृत
पाती प्रकाशन, बलिया की ओर से 'पाती अक्षर सम्मान'
उत्कृष्ट बालसाहित्य-सर्जना हेतु सम्मान चिल्ड्रेन्स बुक ट्रस्ट
शकुन्तला सिरोठिया बाल साहित्य पुरस्कार
चमेली देवी महेन्द्र सम्मान
डॉ राष्ट्रबंधु स्मृति बालसाहित्य सम्मान
मधुर स्मृति बालसाहित्य पुरस्कार समेत कई राष्ट्रीय पुरस्कार / सम्मान
विद्या वाचस्पति (पीएच डी) की मानद उपाधि
 

संप्रति

भारत संचार निगम से सेवानिवृत्ति के बाद स्वतंत्र लेखन
हिन्दी प्रगति समिति, बिहार सरकार के पूर्व सलाहकार सदस्य

पता 
शकुन्तला भवन
सीताशरण लेन, मीठापुर
पटना
800001
E-mail: 
dubeybhagwati123@gmail.com
Mobile: 
9304693031
0612-2214967


 

मंगलवार, 7 जनवरी 2014

जब हाथी का नम्बर आया - रामकुमार गुप्त

बाल कविता : रामकुमार गुप्त

कूँ कूँ कूँ पिल्ले ने गाया, 
चूँ चूँ चूहे के मन भाया.
हारमोनियम को बन्दर ने,
मस्ती में हो खूब बजाया.
भालू की बंशी पर लोमड़ 
गाते तनिक नही शरमाया.
नाचा मोर भोर होने तक,
ऐसा अपना रंग जमाया.
कोयल रानी थी संचालक,
जब हाथी का नम्बर आया.
झूम चला वह जैसे चढ़ने ,
 टूटा  मंच, गिरा-चिल्लाया.

रामकुमार गुप्त

जन्म : 30.12.1944, भिनगा श्रावस्ती
शिक्षा : एम. ए.(अर्थ शास्त्र, समाज शास्त्र, हिन्दी); बी.टी. 
प्रकाशन : बाल साहित्य के क्षेत्र मेँ लम्बे समय से सक्रिय. प्रमुख पत्र-पत्रिकाओ/संकलनों मे सैकड़ों रचनाएं प्रकाशित. 
कार्य क्षेत्र : पूर्व प्रवक्ता, कृषक समाज इंर कालेज, गोला गोकर्णनाथ, खीरी 
 सम्पर्क : निक मंगलादेवी मन्दिर,

 गोला गोकर्णनाथ, खीरी
262802 (उ. प्र.) 
मो. न. 093070 32899
सभी चित्र गूगल सर्च से साभार

शनिवार, 7 दिसंबर 2013

नन्हा मुन्ना


बाल कविता - प्रत्यूष गुलेरी
नन्हा मुन्ना छैल छबीला ड्रेस पहन कर नीला पीला एक हाथ में पकड़ कर फूल चला मैं पढ़ने आज स्कूल अपने घर् का राजदुलारा मां की आंखों का हूँ तारा संगी साथी मुझे बुलाएँ मिलकर हम बैलून फुलाएँ डोर बांध के खूब उड़ाएँ हो! हो!हा !हा!दौड़ लगाएँ बडे जोर से शोर मचाएँ भागेँ देखो दाएं बाएँ घँटी बजी प्रेयर करेंगे हम बच्चे न कभी लड़ेंगे जितना होगा खूब पढ़ेगे
खूब पढ़ेगे खूब बढ़ेगे.




बुधवार, 26 जून 2013

प्रभु दयाल श्रीवास्तव की बाल कविता चींटी की शादी

चींटी की शादी

बाल कविता : प्रभु दयाल श्रीवास्तव 

चींटा की मिस चींटी के संग,
जिस दिन हुई सगाई।
चींटीजी के आंगन में थी,
गूंज उठी शहनाई।

घोड़े पर बैठे चींटाजी, 
बनकर दूल्हे राजा।
आगे चलतीं लाल चींटियां,
बजा रहीं थीं बाजा।

दीमक की टोली थी संग में,
फूँक रहीं रमतूला।
खटमल भाई नाच रहे थे ,
मटका मटका कूल्हा।

दुरकुचियों का दल था मद में,
मस्ताता जाता था।
पैर थिरकते थे ढोलक पर,
अंग अंग गाता था।

घमरे, इल्ली और केंचुये,
थे कतार में पीछे।
मद में थे संगीत मधुर के,
चलते आंखें मींचे।

जैसे ही चीटी सजधज कर,
ले वरमाला आई।
दूल्हे चींटे ने दहेज में,
महंगी कार मंगाई।

यह सुनकर चीटी के दादा,
गुस्से में चिल्लाये।
" शरम न आई जो दहेज में ,
कार मांगने आये।

धन दहेज की मांग हुआ,
करती है इंसानों में।
हम जीवों को तो यह विष सी,
चुभती है कानों में।"

मिस चींटी बोली चींटा से,
"लोभी हो तुम धन के।
नहीं ब्याह सकती मैं तुमको,
कभी नहीं तन मन से।

सभी बराती बंधु बांधवों,
को वापिस ले जाओ।
इंसानों के किसी वंश में,
अपना ब्याह रचाओ।"

शुक्रवार, 29 मार्च 2013

हॅंसीघर कविता : परशुराम शुक्ल


हॅंसीघर
      कविता : परशुराम शुक्ल

बच्चों के विज्ञान भवन ने,
सभी जनों को खूब लुभाया।
उत्तल अवतल दर्पण रखकर,
हॅंसने वाला कक्ष बनाया।।

मम्मी-पापा,भैया-दीदी,
सभी देखने इसको आये।
खड़े हुए दर्पण के आगे,
और अनोखे पोज बनाये।।

दीदी पतली लम्बी हो गयी,
जैसे बिजली वाला पोल।
और बेचारे मोटे पापा,
बने बजाने वाला ढोल।।

भैया ने जब हवा भरी तो,
गेंद सरीखे फूले गाल।
और हमारी नाटी मम्मी,
बनी देखने में फुटवाल।।

हम सबने देखा दर्पण  में,
अपने-अपने तन का हाल।
हॅंसते-हॅंसते लोटपोट सब,
क्या दर्पण ने किया कमाल।।
     परशुराम शुक्ल
भोपाल 

गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

शिशुगीत : बस्ता सस्ता - सृष्टि पांडेय


शिशुगीत : सृष्टि पांडेय

चूहे जी  पहुँचे विद्यालय, 

लेकर अपना बस्ता। 
बच्चे लगे चिढ़ाने कहकर
तेरा बस्ता सस्ता। 
मगर न की परवाह, सिर्फ 
पढने में ध्यान लगाया। 
चूहे जी  ने सब बच्चों  में 
अब्बल नंबर पाया। 

सृष्टि 
कक्षा 6
जवाहर नवोदय विद्यालय
हथौड़ा बुजुर्ग
शाहजहाँपुर