बाल कविता : अजय गुप्त
आओ बच्चों तुम्हें बताएं ,
कैसे होते हैं दिन- रात ?
देखो , सुनो हमारी बात ;
मुह पर मले गुलाल सरीखा ,
या कि टमाटर लाल सरीखा .
मुस्काती हरियाली वाला
सोने सी उजियाली वाला
कीलों पर नाचती गेंद-सा
जो हिस्सा अपनी धरती का ,
सूरज के सम्मुख होता हैं ,
उसमें होता दिन या प्रात
कैसे होते हैं दिन रात ?
अक्सर श्वेत मलाई-सा ,
काला , काली माई-सा .
हँसते चंदा-तारों का ,
शरमाए उजियारों का .
कीली पर नाचती गेंद-सा ,
जो हिस्सा अपनी धरती का ,
सूरज के पीछे होता है .
वही कहा जाता है रात .
बोलो बच्चों समझ गए न ,
कैसे होते हैं दिन- रात ?
================
अजय गुप्त
जन्म : 6 सितम्बर, 1951 , शाहजहांपुर
प्रकाशित बालकविता संग्रह :
कैसे होते हैं दिन- रात ?,जंगल में मोबाइल
प्रवर्तक/संयोजक : प्रभा स्मृति बाल साहित्य पुरस्कार
संपर्क : सचिव , गाँधी पुस्तकालय ,चौक , शाहजहांपुर (उ.प्र.)
Mob. 096210 88824
प्रशंसनीय कविता . ज्ञानवर्धक . बधाई .
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया कविता ....
जवाब देंहटाएं