कहानी दीप जले शंख बजे
जयप्रकाश भारती समंदर के किनारे एक बस्ती थी। उसमें गुड़िया जैसी एक लड़की का जन्म हुआ। गोल-मटोल मुँह, बड़ी-बड़ी नीली आँखें, सुनहरे बाल, तीखे नाक-नक्श। पड़ोस की कई औरतें कहतीं, 'लड़की नहीं, परी है परी।' माता-पिता ने उसका नाम रख दिया-वेल्दी। धीरे-धीरे वह बड़ी होने लगी। शरमीली वेल्दी पढ़ने-लिखने लगी। वह बढ़ती गई, माता-पिता की आय भी बढ़ती चली गई।
एक दिन स्कूल में परीक्षा थी। अध्यापिका ने निबंध लिखने को दिया। उसने 'दीपों का त्योहार' के बारे में नानी से सुना था। उसी पर निबंध लिख दिया। वेल्दी अव्वल आई। उसकी बस्ती से तो भारत सात समंदर पार था। वह कभी भारत आई नहीं थी, लेकिन उसने निबंध में हँसी-खुशी, उमंग-उत्साह के बारे में हू-ब-हू लिखा था।
बस उसी दिन से वेल्दी के भीतर इच्छा जाग उठी। वह स्वयं भारत जाएगी। इस त्योहार में शामिल होगी।
वेल्दी भारत के बारे में जानने को उत्सुक रहती। वहाँ के नगरों, गाँवों, निवासियों के बारे में पढ़ती। मंदिरों, इमारतों और रहन-सहन के बारे में जानकारी बढ़ाती। यहाँ तक कि उसने अपने लिए एक रेशमी साड़ी खरीदी। वह माथे पर बिंदी लगा लेती। साड़ी पहन लेती। शीशे के सामने खड़ी होकर अपने को देखा करती।
समय बीता। वेल्दी बड़ी हो गई। उसकी पढ़ाई भी पूरी हो रही थी। अब हर दिन वह सोचती कि कब भारत के लिए रवाना हो? और सचमुच दिन आ पहुँचा, जब वेल्दी जहाज पर सवार हुई भारत पहुँबने के लिए। उसके सपनों का देश-भारत। जहाँ देवी-देवताओं के दर्शन होते हैं। जहाँ अमृत की धारा गंगा बहती है।
जहाज की लंबी यात्रा वेल्दी को और भी लंबी मालूम हुई। वह तो जल्दी-से-जल्दी भारत पहुँचना चाहती थी। लाल किला या कुतुबमीनार देखने को वह उतावली नहीं थी। उसे मथुरा-वृंदावन में कृष्ण-कन्हैया के दर्शन करने थे। गंगोतरी-यमुनोतरी के अनोखे दृश्य कैमरे में भरने थे।
बेल्दी भारत आ पहुँची। उसने सबसे पहले कई साड़ियाँ खरीदीं, फिर वृंदावन के लिए रवाना हो गई। रंगों के त्योहार में कैसे अबीर और रंग की बहार होती है- यह उसने अपनी आँखों से देखा। जहाँ-जहाँ श्रीकृष्ण के दर्शन करती, वहाँ हाथ जोड़ती। आँखें बंद करके शीश नवाती। पूजा के समय शंख बजते तो वह मुग्ध हो जाती। कभी उसे लगता कि वह भी कृष्ण की गोपी है। कभी लगता, वह मीरा है। उसने मथुरा में रहकर कई भजन भी सीख लिये।
दीपावली निकट आ गई। वह हर दिन किसी-न-किसी गाँव में जाती। घरों की लिपाई-पुताई करते लोगों को देखती। दीवारों पर चित्रकारी करती औरतों को देखती तो देखती ही रह जाती।
दीवाली के दिन नगर की चहल-पहल अनोखी थी। मिठाइयों की सजी-धजी दुकानें। नए और सुंदर कपड़े पहने बच्चे, बड़े और औरतें। साँझ हुई तो पूरी नगरी जगमगा उठी। औरतें यमुना में दीपदान कर रही थीं। दूर-दूर तक जल में तैरते दीपक। उनकी झिलमिलाती परछाई। क्या कुछ नहीं देखा वेल्दी ने। घोर अँधेरी रात, लेकिन सब तरफ उजाला।
दस महीने इसी तरह बीत गए। अब वेल्दी हिमालय दर्शन के लिए निकल पड़ी। ऊँचे-ऊँचे, हरे-भरे पहाड़। सैकड़ों फीट नीचे बहती गंगा की धारा। राह में छोटा सा एक पहाड़ी गाँव पड़ा तो वह वहीं उतर गई। वेल्दी ने तय किया कि कुछ दिन वहाँ रहकर पेंटिंग करेगी। वहाँ पर्यटकों के ठहरने के लिए छोटी सी जगह थी, वहीं ठहर गई। रोज सवेरे वह निकल पड़ती। कोई मनोरम दृश्य देखती, तो उन्हें रंगों में उतारने लगती। शाम को लौटती।
कुछ दिन यों ही बीते। एक दिन सवेरे पर्यटक केंद्र का रखवाला आया। बोला, "मेमसाहब, यहाँ इतने दिन नहीं ठहर सकता कोई। अब आप चलती फिरती नजर आओ।"
वेल्दी को झटका सा लगा। वह तो नारायणपुर में साल-दो साल रहना चाहती थी। उसने चौकीदार को कुछ रुपए दिए। बोली, "बाबा, हफ्ते भर में मैं कोई प्रबंध कर लूँगी।"
चौकीदार चला गया। वहाँ सड़क चौड़ी की जा रही थी। इंजीनियर श्री भट्ट से वह मिली। उनकी मदद से कुछ राज-मजदूर बुलाए। पहाड़ी पत्थरों से दो छोटे कमरे बनवा लिये। जरूरत की आवश्यक वस्तुएँ भी जुटा लीं। अब उसे कोई परेशानी न थी। लेकिन गाँववाले उसे शक की निगाह से देखते थे। कोई कहता, 'विदेशी जासूस है।' दूसरा कोई समझता, 'अपने धर्म का प्रचार करने आई है।'
एक बार वेल्दी गंगोतरी गई। वहाँ उसे स्वामी सदानंद मिले। स्वामीजी से वह देर तक बातें करती रही। उसने स्वामीजी को बताया, "कनाडा मेरी जन्मभूमि है, भारत मेरा मनभावन देश। रोशनी का त्योहार इस तरह कहीं नहीं मनाया जाता।"
स्वामीजी ने उसे प्रसाद दिया, फिर बोले, "बेटी, तुम हर दिन दीवाली मनाओ। अँधेरे घरों में रोशनी पहुँचाओ। यही तुम्हारे लिए पूजा होगी।"
स्वामीजी से विदा लेकर वेल्दी चली आई। स्वामीजी की बात वेल्दी ने कितनी समझी, कितनी नहीं। लेकिन वह सोचती रही, सोचती रही। उसने तय किया कि वह अनपढ़ों को पढ़ाएगी।
नारायणपुर लौटी तो देखा कि घर में चोरी हो गई है। कपड़े-बरतन कुछ नहीं बचा था। थानेदार उससे पूछताछ करने आया। वेल्दी का मन उचाट हो उठा, किंतु स्वामीजी की बात रह-रहकर उसे कुरेद देती। थानेदार से उसने कहा, "कोई खास सामान नहीं गया। आप चिंता न करें।"
थानेदार चला गया। सचमुच वेल्दी की बनाई सभी पेंटिंग ज्यों की त्यों थीं। जल्दी ही उसने बंबई में अपने चित्रों की प्रदर्शनी की। अच्छी आमदनी हो गई।
नारायणपुर आकर उसने कथा करवाई। गाँव में सभी को न्योता दिया। कथा के बाद कीर्तन कराया। प्रसाद बाँटा। हर दिन साँझ के समय वहाँ औरतें-बच्चे एकत्र हो जाते। वे प्रार्थना करते। गौत-भजन गाते। कभी-कभी मिलकर नाचते भी। वेल्दी उन्हें साफ-सफाई की बातें बतप्ती। रोगों से बचाव कैसे हो यह भी सिखाती।
पंचायतघर में एक अनोखे स्कूल की शुरुआत की गई। स्कूल दो घंटे खुलता। बड़े-बूढ़े उसमें पढ़ते। खेती क्यारी की बातें उन्हें बताई जातीं। गाँव के कई युवक इस काम को करते। अब नारायणपुर में बदलाव आने लगा। किसी के यहाँ कोई भी खुशी का मौका हो, वेल्दी को अवश्य बुलाया जाता।
गाँव की औरतें कहतीं, 'या औरत तो लक्ष्मी है। इसने हमारे गाँव को बदल दिया। हमें नई रोशनी में जीना सिखा दिया।'
वेल्दी अब प्रौढ़ हो चुकी थी। एक दिन उसका पाँव फिसला तो हड्डी टूट गई। इलाज के लिए शहर जाना पड़ा। कई महीने अस्पताल में रही। लौटी तो व्हील चेयर पर। सारा गाँव उसे देखने को उमड़ पड़ा। उसे देखकर गाँववालों की आँखें भर आई। ऊँचे कद की बेल्दी लंबे डग भरकर चलती थी. लेकिन अब वह अपने आप चल न पाती।
वेल्दी ने एक बार फिर दीवाली का त्योहार नारायणपुर में मनाया। भरपूर उत्साह और उमंग के साथ।
दिन बीतते गए। अब वेल्दी की सेहत ठीक नहीं रहती थी। कभी भी डॉक्टर की जरूरत पड़ जाती। उसने तय किया कि अब कनाडा लौट जाएगी। उसका एक चित्र पंचायतघर में लगा दिया गया। तीसरे दिन वेल्दी ने अपने मनभावन देश से अलविदा ले ली।
कविता मखमल जैसे फूल
नन्हे-नन्हे, बड़े-बड़े भी,
जन्म : २ जनवरी, १९३६, मेरठ (उ.प्र.)
अपने संपादन में बाल पत्रिका नंदन को
लोकप्रियता के शिखर तक पहुँचाया. बच्चों के लिए सैकड़ों पुस्तकें प्रकाशित/सम्पादित. उनकी चर्चित पुस्तकें हैं भारतीय बाल साहित्य का इतिहास, बाल पत्रकारिता स्वर्ण युग की ओर, बाल साहित्य इक्कीसवीं सदी में, हिंदी की श्रेष्ठ बाल कथाएं, लो गुब्बारे, हिमालय की पुकार, चलो चांद पर चलें, हीरों का हार, रुनझुन रुनझुन, झुनझुना, फूलों के गीत तथा विज्ञान-गीत। निधन : ५ फरवरी, २००५ |