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मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

रेल चली छुक-छुक .


 बाल गीत : डा. अजय जनमेजय
रेल चली छुक-छुक .
रेल चली छुक-छुक .

रेल में थे नाना , 
साथ लिए खाना . 
खाना खाया चुप- चुप .
रेल चली छुक-छुक . 
 
रेल में थे बच्चे, 
छोटे -बड़े - अच्छे .
खेलें खेल लुक-छुप . 
रेल चली छुक-छुक

रेल में थी  दादी , 
बिलकुल सीधी-सादी . 
देख रहीं टुक-टुक .
रेल चली छुक-छुक

रेल में थी मुनिया ,
देखने को दुनिया .
दिल करे धुक-धुक .
रेल चली छुक-छुक  
डा.अजय जनमेजय


 जन्म : २८ नवम्बर , १९५५ , हस्तिनापुर 
शिक्षा : बी. एस-सी.एम्. बी. बी. एस. ;
प्रकाशित . पुस्तकें :
अक्कड़-बक्कड़ हो हो हो , हरा समंदर  गोपी चंदर , नन्हें पंख ऊँची उडान 
 संपर्क :रामबाग कालोनी , बिजनौर 




सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

सूर्य कुमार पांडेय की बाल कविताएँ

पेटूमल
लड्डू-पेड़ा  रसगुल्ला .
मचा रहे हल्ला-गुल्ला . 
पेटूमल  की पड़ी नजर . 
गए सभी मुंह के अंदर .
अगड़म-बगड़म
अगड़म-बगड़म-बम,
खेलें कूदें हम . 
अगड़म-बगड़म ठा   ,
बछड़ा बोला-बां.
अगड़म-बगड़म कुर्र, 
चिड़िया उड़ गयी फुर्र.
घडी 
दस बजकर दस मिनट हुआ जब , बैठी मूंछे  ऐठ    . 
आठ बीस हैं , घडी झुकाकर , मूंछ गयी है बैठ.
होली


होली पर मुश्किल के
मौके आते ऐसे,
सोच रहा खरगोश 
ऊँट के गले मिले कैसे 






 चित्र: गूगल सर्च 

सूर्य कुमार पांडेय

 जन्म :10 अक्तूबर , 1954 , बलिया 
शिक्षा : एम्-एस. सी.
 बाल कविता की रचना में अद्भुत प्रयोगों के लिए चर्चित .
कई पुस्तकें प्रकाशित . 
 संपर्क : 538 k/514, त्रिवेणी नगर द्वितीय , लखनऊ 

कहानी : दीप जले शंख बजे : जयप्रकाश भारती

कहानी 
दीप जले शंख बजे 

जयप्रकाश भारती 
समंदर के किनारे एक बस्ती थी। उसमें गुड़िया जैसी एक लड़की का जन्म हुआ। गोल-मटोल मुँह, बड़ी-बड़ी नीली आँखें, सुनहरे बाल, तीखे नाक-नक्श। पड़ोस की कई औरतें कहतीं, 'लड़की नहीं, परी है परी।' माता-पिता ने उसका नाम रख दिया-वेल्दी। धीरे-धीरे वह बड़ी होने लगी। शरमीली वेल्दी पढ़ने-लिखने लगी। वह बढ़ती गई, माता-पिता की आय भी बढ़ती चली गई।

एक दिन स्कूल में परीक्षा थी। अध्यापिका ने निबंध लिखने को दिया। उसने 'दीपों का त्योहार' के बारे में नानी से सुना था। उसी पर निबंध लिख दिया। वेल्दी अव्वल आई। उसकी बस्ती से तो भारत सात समंदर पार था। वह कभी भारत आई नहीं थी, लेकिन उसने निबंध में हँसी-खुशी, उमंग-उत्साह के बारे में हू-ब-हू लिखा था।

बस उसी दिन से वेल्दी के भीतर इच्छा जाग उठी। वह स्वयं भारत जाएगी। इस त्योहार में शामिल होगी।

वेल्दी भारत के बारे में जानने को उत्सुक रहती। वहाँ के नगरों, गाँवों, निवासियों के बारे में पढ़ती। मंदिरों, इमारतों और रहन-सहन के बारे में जानकारी बढ़ाती। यहाँ तक कि उसने अपने लिए एक रेशमी साड़ी खरीदी। वह माथे पर बिंदी लगा लेती। साड़ी पहन लेती। शीशे के सामने खड़ी होकर अपने को देखा करती।

समय बीता। वेल्दी बड़ी हो गई। उसकी पढ़ाई भी पूरी हो रही थी। अब हर दिन वह सोचती कि कब भारत के लिए रवाना हो? और सचमुच दिन आ पहुँचा, जब वेल्दी जहाज पर सवार हुई भारत पहुँबने के लिए। उसके सपनों का देश-भारत। जहाँ देवी-देवताओं के दर्शन होते हैं। जहाँ अमृत की धारा गंगा बहती है।

जहाज की लंबी यात्रा वेल्दी को और भी लंबी मालूम हुई। वह तो जल्दी-से-जल्दी भारत पहुँचना चाहती थी। लाल किला या कुतुबमीनार देखने को वह उतावली नहीं थी। उसे मथुरा-वृंदावन में कृष्ण-कन्हैया के दर्शन करने थे। गंगोतरी-यमुनोतरी के अनोखे दृश्य कैमरे में भरने थे।

बेल्दी भारत आ पहुँची। उसने सबसे पहले कई साड़ियाँ खरीदीं, फिर वृंदावन के लिए रवाना हो गई। रंगों के त्योहार में कैसे अबीर और रंग की बहार होती है- यह उसने अपनी आँखों से देखा। जहाँ-जहाँ श्रीकृष्ण के दर्शन करती, वहाँ हाथ जोड़ती। आँखें बंद करके शीश नवाती। पूजा के समय शंख बजते तो वह मुग्ध हो जाती। कभी उसे लगता कि वह भी कृष्ण की गोपी है। कभी लगता, वह मीरा है। उसने मथुरा में रहकर कई भजन भी सीख लिये।

दीपावली निकट आ गई। वह हर दिन किसी-न-किसी गाँव में जाती। घरों की लिपाई-पुताई करते लोगों को देखती। दीवारों पर चित्रकारी करती औरतों को देखती तो देखती ही रह जाती।

दीवाली के दिन नगर की चहल-पहल अनोखी थी। मिठाइयों की सजी-धजी दुकानें। नए और सुंदर कपड़े पहने बच्चे, बड़े और औरतें। साँझ हुई तो पूरी नगरी जगमगा उठी। औरतें यमुना में दीपदान कर रही थीं। दूर-दूर तक जल में तैरते दीपक। उनकी झिलमिलाती परछाई। क्या कुछ नहीं देखा वेल्दी ने। घोर अँधेरी रात, लेकिन सब तरफ उजाला।

दस महीने इसी तरह बीत गए। अब वेल्दी हिमालय दर्शन के लिए निकल पड़ी। ऊँचे-ऊँचे, हरे-भरे पहाड़। सैकड़ों फीट नीचे बहती गंगा की धारा। राह में छोटा सा एक पहाड़ी गाँव पड़ा तो वह वहीं उतर गई। वेल्दी ने तय किया कि कुछ दिन वहाँ रहकर पेंटिंग करेगी। वहाँ पर्यटकों के ठहरने के लिए छोटी सी जगह थी, वहीं ठहर गई। रोज सवेरे वह निकल पड़ती। कोई मनोरम दृश्य देखती, तो उन्हें रंगों में उतारने लगती। शाम को लौटती।

कुछ दिन यों ही बीते। एक दिन सवेरे पर्यटक केंद्र का रखवाला आया। बोला, "मेमसाहब, यहाँ इतने दिन नहीं ठहर सकता कोई। अब आप चलती फिरती नजर आओ।"

वेल्दी को झटका सा लगा। वह तो नारायणपुर में साल-दो साल रहना चाहती थी। उसने चौकीदार को कुछ रुपए दिए। बोली, "बाबा, हफ्ते भर में मैं कोई प्रबंध कर लूँगी।"

चौकीदार चला गया। वहाँ सड़क चौड़ी की जा रही थी। इंजीनियर श्री भट्ट से वह मिली। उनकी मदद से कुछ राज-मजदूर बुलाए। पहाड़ी पत्थरों से दो छोटे कमरे बनवा लिये। जरूरत की आवश्यक वस्तुएँ भी जुटा लीं। अब उसे कोई परेशानी न थी। लेकिन गाँववाले उसे शक की निगाह से देखते थे। कोई कहता, 'विदेशी जासूस है।' दूसरा कोई समझता, 'अपने धर्म का प्रचार करने आई है।'

एक बार वेल्दी गंगोतरी गई। वहाँ उसे स्वामी सदानंद मिले। स्वामीजी से वह देर तक बातें करती रही। उसने स्वामीजी को बताया, "कनाडा मेरी जन्मभूमि है, भारत मेरा मनभावन देश। रोशनी का त्योहार इस तरह कहीं नहीं मनाया जाता।"

स्वामीजी ने उसे प्रसाद दिया, फिर बोले, "बेटी, तुम हर दिन दीवाली मनाओ। अँधेरे घरों में रोशनी पहुँचाओ। यही तुम्हारे लिए पूजा होगी।"

स्वामीजी से विदा लेकर वेल्दी चली आई। स्वामीजी की बात वेल्दी ने कितनी समझी, कितनी नहीं। लेकिन वह सोचती रही, सोचती रही। उसने तय किया कि वह अनपढ़ों को पढ़ाएगी।

नारायणपुर लौटी तो देखा कि घर में चोरी हो गई है। कपड़े-बरतन कुछ नहीं बचा था। थानेदार उससे पूछताछ करने आया। वेल्दी का मन उचाट हो उठा, किंतु स्वामीजी की बात रह-रहकर उसे कुरेद देती। थानेदार से उसने कहा, "कोई खास सामान नहीं गया। आप चिंता न करें।"

थानेदार चला गया। सचमुच वेल्दी की बनाई सभी पेंटिंग ज्यों की त्यों थीं। जल्दी ही उसने बंबई में अपने चित्रों की प्रदर्शनी की। अच्छी आमदनी हो गई।

नारायणपुर आकर उसने कथा करवाई। गाँव में सभी को न्योता दिया। कथा के बाद कीर्तन कराया। प्रसाद बाँटा। हर दिन साँझ के समय वहाँ औरतें-बच्चे एकत्र हो जाते। वे प्रार्थना करते। गौत-भजन गाते। कभी-कभी मिलकर नाचते भी। वेल्दी उन्हें साफ-सफाई की बातें बतप्ती। रोगों से बचाव कैसे हो यह भी सिखाती।

पंचायतघर में एक अनोखे स्कूल की शुरुआत की गई। स्कूल दो घंटे खुलता। बड़े-बूढ़े उसमें पढ़ते। खेती क्यारी की बातें उन्हें बताई जातीं। गाँव के कई युवक इस काम को करते। अब नारायणपुर में बदलाव आने लगा। किसी के यहाँ कोई भी खुशी का मौका हो, वेल्दी को अवश्य बुलाया जाता।

गाँव की औरतें कहतीं, 'या औरत तो लक्ष्मी है। इसने हमारे गाँव को बदल दिया। हमें नई रोशनी में जीना सिखा दिया।'

वेल्दी अब प्रौढ़ हो चुकी थी। एक दिन उसका पाँव फिसला तो हड्‌डी टूट गई। इलाज के लिए शहर जाना पड़ा। कई महीने अस्पताल में रही। लौटी तो व्हील चेयर पर। सारा गाँव उसे देखने को उमड़ पड़ा। उसे देखकर गाँववालों की आँखें भर आई। ऊँचे कद की बेल्दी लंबे डग भरकर चलती थी. लेकिन अब वह अपने आप चल न पाती।

वेल्दी ने एक बार फिर दीवाली का त्योहार नारायणपुर में मनाया। भरपूर उत्साह और उमंग के साथ।

दिन बीतते गए। अब वेल्दी की सेहत ठीक नहीं रहती थी। कभी भी डॉक्टर की जरूरत पड़ जाती। उसने तय किया कि अब कनाडा लौट जाए‌गी। उसका एक चित्र पंचायतघर में लगा दिया गया। तीसरे दिन वेल्दी ने अपने मनभावन देश से अलविदा ले ली।

कविता
मखमल जैसे फूल

छोटे-छोटे पौधों पर, 
जाड़ों में लद जाते हैं.
करें सजावट घर-बाहर की,
ख़ुशबू ख़ूब लुटाते हैं.
नन्हे-नन्हे, बड़े-बड़े भी,
मखमल-जैसे पीले फूल. 
गेंदा इनको कहते हैं, 
इनमें कहीं न होता शूल.



जयप्रकाश भारती
जन्म : २ जनवरी, १९३६, मेरठ (उ.प्र.) 
शिक्षा : एम. ए. 
अपने संपादन में बाल पत्रिका नंदन को 
लोकप्रियता के शिखर तक पहुँचाया.
बच्चों के लिए सैकड़ों पुस्तकें प्रकाशित/सम्पादित. 
उनकी चर्चित पुस्तकें हैं 
 भारतीय बाल साहित्य का इतिहास, बाल पत्रकारिता स्वर्ण युग की ओर, बाल साहित्य इक्कीसवीं सदी में, 
हिंदी की श्रेष्ठ बाल कथाएं, लो गुब्बारे, हिमालय की पुकार, चलो चांद पर चलें, हीरों का हार, रुनझुन रुनझुन, झुनझुना, फूलों के गीत तथा विज्ञान-गीत। 
निधन : ५ फरवरी, २००५

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

आया बसंत



बाल कविता : निर्मला सिंह 
चित्रांकन : सलोनी रूपम  
सर्दी का होने लगा अंत , 
आया बसंत ,आया बसंत  .
डाली-डाली पर फूल खिले , 
क्या भीनी-भीनी हवा चले . 
लो, बाग-बगीचे महक उठे , 
पंछी खुश होकर चहक उठे .
तितलियाँ उड़ रही फूलों पर , 
यह मौसम है सबसे सुंदर .
[] [] []
निर्मला सिंह 
हिंदी की चर्चित महिला कथाकार 
बाल कहानी लेखन के नए प्रयोगों के लिए चर्चित .
 जन्म ;९अप्रैल , १९४३ , 
प्रकाशित बाल साहित्य :
  बाल कविता संग्रह : इक्कीस बालगीत , हम हैं हिन्दुस्तानी
बाल कहानी संग्रह :थैंक यू मम्मी सॉरी  पापा , पापा पिकनिक चलो न ,
आसमान से रुई गिर रही है , वाह ! वाह ! बड़े तीरंदाज हैं 
संपर्क : १८५ , सिविल लाइन , बरेली

रविवार, 13 फ़रवरी 2011

गाय







बाल कविता: डा. विनय कुमार मालवीय


रुखा-सूखा खाती फिर भी ,
अमृत जैसा दूध पिलाती .
अपने सहज गुणों के कारण ,
जग में पूजनीय बन जाती .
इसके बछड़े मेहनत करते ,
खेतों में हैं फसल उगाते .
सदा कर्म ही फल देता है ,
जग को सुंदर पाठ पढाते .
डा. विनय कुमार मालवीय जी
जन्म : १६ अक्तूबर , १९५० ,
प्रकाशित पुस्तकें :
बाल कहानी संग्रह :
ईमानदार ,सोनू की लापरवाही , सच्चा दोस्त ,
टामी की वफ़ादारी , पढाई का महत्त्व , सहस का परिचय , शिक्षाप्रद कहानियां
बाल कविता संग्रह :
देश पर कुर्वान हैं
बाल जीवनीसंग्रह ;
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक , गोपाल कृष्ण गोखले
संपर्क ; ६९३/६०५ , मालवीय नगर ,इलाहाबाद

चित्र साभार ; गूगल सर्च


 

शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

प्यारी छुटकी रानी


प्यारी छुटकी रानी

बाल कविता : विनोद भृंग

चित्रों में : नयना और प्रियांशु

प्यारी-प्यारी छुटकी रानी!

जब देखो, सोयी रहती है,
सपनों में खोयी रहती है. 
जरा हिलाओ, जग जाती है,
अभी नहीं कुछ भी खाती है.
चस-चस पीती दूध अभी बस, 
कभी-कभी पीती है पानी. 
नन्ही-सी यह प्यारी गुड़िया,
दादी की गोदी में खेले.
सबके पास चली जाती है, 
कोई इसे प्यार से ले ले. 
कुछ दिन बाद बड़ी जब होगी, 
खूब करेगी यह शैतानी.
 विनोद भृंग जी 
जन्म ; १ सितम्बर , १९५२ , सहारनपुर 
प्रकाशित बाल कविता संग्रह : जादूगर बादल 
संपर्क : ९/२८१ , हरनाथपुरा , सहारनपुर  
मो. ०९७५८३५०२४७ 

मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

पतंगबाज़ों की गोंददानी - रावेंद्रकुमार रवि



पतंगबाज़ों की गोंददानी

चावल की दुकान पुरानी,
मंडी में जानी-पहचानी.
इस पर बैठे बेचें चावल,
झुनकू के चाचा रमजानी.

आँगन में चुगती है चावल,
नन्ही-छोटी चिड़िया रानी.
बहुत प्रेम से खाती इसकी,
खिचड़ी नन्ही गुड़िया रानी.

खीर पकाकर खाते इसकी,
बिन दाँतों के नाना-नानी.
सबका मन ललचाने लगता,
सूँघ पुलाव की महक सुहानी.

चावल की कचरी से लगती,
होली की नमकीन सुहानी.
भात भी बनता सबसे बढ़िया,
पतंगबाज़ों की गोंददानी.

रावेंद्रकुमार रवि 

जन्म : २ मई , १९६६ को बरेली में
-- प्रकाशित पुस्तकें --
चकमा, नन्हे चूज़े की दोस्त, वृत्तों की दुनिया.
सरस पायस के संपादक
संपर्क : राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, चारुबेटा,
खटीमा, ऊधमसिंहनगर, उत्तराखंड (भारत)
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चित्र : गूगल सर्च से साभार